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An Indian Army Officer retired

Monday, January 28, 2013

वक्त........!

वक्त !
ये हर बार तुमसे एक ही लडाई ,

तुम्हें मानूं या अपनी सुनूं ,

तुम्हारी अंगुली पकडूँ, साथ चलूँ,
या,
अपना रास्ता चुनूं....

इस उधेड़ बुन में बस यूं ही खड़ा रह गया हूँ , 
अपने स्वप्नगृह के कच्चे आँगन में...दीवारें छोटी हो या बड़ी, दीवार ही होती हैं...

पर स्वप्न बालक से...
रोज़ इस पार उस पार कूदने का खेल खेल लेते हैं,

और, मैं ! 
दरवाज़े से तुम्हें रोज़ बस यूं ही ताकता रह गया हूँ,
पक्की सडक वाली गली से होकर गुजरते, जाते हुए...

न तुम ही कभी रुके,
न मैं ही कभी चल पाया, इतने लम्बे कदम, जितने तुम्हारे..!

© 2012 Capt. Semant

4 comments:

  1. बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
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  2. na tum kabhi rukey-- na main kabhi chal paaya! --very nice!!

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  3. बहुत सार्थक,,, बधाई 'लिखते रहिए....

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