अनंत आशा है मानव की आँखों में,
आश्रय पाती स्वयं, स्वयं की बाँहों में,
एक स्वप्न उस अरुणिम प्रभात का, जो चढ़ता नित उषाकाल,
क्यों तपता वह हरदम दिनभर, जब प्रारब्ध सूर्यास्त,
पर सुन्दर रहे चारों प्रहर,
यह चाहत भी रहती है,
सूर्यास्त नियति है,
आशा जीवन गढ़ती है...
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