भाई ! सुनो ,
जब से घने जंगलों से होकर आये हो ,
हरवक्त गुनगुनाते रहते हो ऐसा क्यों ?
"कुछ पेड़ों, पक्षियों, फूलों से मुलाकात हुयी थी,
वो शाम ढलते ही सो जाते हैं,
सुबह जल्दी उठ जाते हैं,
सूरज, चाँद, सितारों, सब को अपने पास पाते हैं,
गुज़रा पल भूल जाते हैं ,
आनेवाले पल की बात नहीं उठाते हैं,
जो पल मुट्ठी में उसी में सब कुछ सजाते हैं,
'जीवन' गाते हैं, वक्त चहकते, खिलते, महकते, गाते,, दौड़ते, खेलते बिताते हैं,
और,
जब भी मिटते, बुझते, मुरझाते हैं,
आपस में किसी ना किसी के काम आते हैं,
आज कल/ उनकी बात/ मैं भी/ वैसे ही जीता हूँ.......
अब मिटूंगा तो याद आऊँगा,
अब बुझुंगा तो याद आऊँगा,
मुरझाऊंगा,
तब भी किसी ना किसी के काम आऊँगा,
याद आऊँगा ये जान आया हूँ ठान आया हूँ .....सो गुनगुनाता हूँ...
और अब ऐसे ही रहूँगा ...........
ये बहुत अच्छा लगता है.... निर्मल, निर्भय और निश्चिन्त होना....!
© 2012 कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'
jivan jine se bahrpur rachana
ReplyDeleteShukriya Poonam....
ReplyDeletebahut ! bahut ! hi acha ! likha hai aapney --kitni sundar aur pavitra soch!
ReplyDeletevery nice! very freshening!
बहुत खूब
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