१. भीतर जिया हूँ, बाहर जिया हूँ,
कली से मुरझाने तक हरपल जिया हूँ,
अपनी कहानी का व्यापार जिया हूँ....
फूल हूँ, खुशबू हूँ, खिला हूँ, गिरा हूँ,
इन कुछ दिनों में ही मैं ! "अमर" संसार जिया हूँ...
२.
फिर एक बार तुम्हारा मुझे फूलों सा कह देना अच्छा लगा,
तब से अब तक मन खिला खिला मेरा......
और बस यूँ ही ! एक बसंत बस गया है मेरे आँगन...
३.
फूल !
"ये ओस कैसे पकड़ी तुमने?
तपते सूरज से डर नहीं लगता ?
कितनी सी देर की प्रीत होगी ये ?"
"एक बात कहूँ! प्रीत का एक पल ही काफ़ी......की है कभी ?
४.
फूल ! सुनो...
ये तुम मौसम के मुताबिक ही क्यों खिलते बिखरते हो....?
इतने अच्छे लगते हो हमेशा रहा करो ना.. खिले, खुशबू बिखेरते...
" अब सच तो ये कि,
ये इतना आसान भी नहीं,
हरदम खिले रहना, महकना...
किसी भी युग को किसी की, 'शाश्वत' खुशी बर्दाश्त हुयी है भला,
बस इतना कि बसंत से कुछ रिश्ता अच्छा, सो,
बार बार लौट पाता हूँ, और,
हर बार थोडा थोडा जी जाता हूँ.....
५.
फूल !
सुनो ......भाई !
“ये हर सुबह,
इतने खुश,
मुस्कुराते ,
क्यों और कैसे, खिल जाते हो ?”
“सूरज बनना है,
किरनें समेटता हूँ,
इस लिए उन्हें गिरने नहीं देता,
अपनी हथेली पर ले लेता हूँ,
रेखाएं चमक उठती हैं....
चेहरा खिला लगता है....और कुछ पूछना है ?
© 2012 कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'
bahut sunder
ReplyDeletemeenakshi2012@blogspot.in
शुक्रिया मानसी....
Deletesunder
ReplyDeleteआभार इंदु.....
DeleteVery Sensitive, as always sir.
ReplyDeletebahut komal
ReplyDeleteBahut! bahut! bahut! hi acha! laga!
ReplyDeleteआपकी सोच में कितनी गहराई... हर विषय के बारे में इतनी गहरी समझ ...सजीव हो या निर्जीव आप सब को शब्द दे देते हो, लगता लगता है जैसे सब के पास जुबान है।
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