कुछ तो है जो, उसे पिंजरे में जकड़ता है,
वो नहीं मानता कि ज़िंदगी बहुत बड़ी नहीं, छोटी है,
वो हर वक्त, वक्त के आने की बात करता है,
वो समझे तो उससे कहूँ, कि “चांदनी के सपने रात खत्म हो जाने से पहले ज़मीन पर उतार लो ,
सुबह की लालिमा के बाद धूप बहुत झुलसाती है ...
ढलती शाम सपने, चाँद का हाथ पकड़ कर ही बुन सकती है
सूरज की रोशनी में सपने सब को दिखाई दे जाते हैं
हर नज़र कुछ न कुछ जान जाती है,
मन परिंदा है धूप में उड़ा तो थक जायेगा,
या किसी के शब्द बाण से बिंध कर मर जायेगा,
चैन सिर्फ हरी शाख के घरोंदे में पायेगा,
घरोंदे शाम का ईमानदारी से इन्तेज़ार करते हैं,
पिंजरे कब खुली हवा के मायने समझते हैं
बंद पिंजरों में सपने कभी नहीं खिलते हैं,
पिंजरों में सिर्फ बंधन पलते हैं,
मालिकाना गर्व सजते हैं,
सुन्दर पिंजरे का मालिक परिंदे का भी मालिक है,
और ये रिश्ता तब तक ही रहता है जब तक परिंदा अपने ख्वाब नहीं बुनता है,
ये बात शायद वो नहीं समझ पायेगा,
वो वक्त आने का इन्तेज़ार करता रह जायेगा
वक्त रेत है अँगुलियों के बीच से चुपके से सरक जायेगा.....
पिंजरा खुल भी गया तो उस रोज परिंदा उड़ नहीं पायेगा...
और उड़ा भी तो उस वक्त कहाँ जायेगा,
क्योंकि तब तक हरी शाख का खाली घरोंदा पतझड़ आने पर तिनका तिनका बिखर जायेगा ...”
न जाने क्यों फिर भी वो हर वक्त , वक्त आने की बात करता है...
न जाने क्यों नहीं मानता कि ज़िंदगी बहुत बड़ी नहीं, छोटी है....
Parinde ki zindagi hai hi aisi.......
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