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An Indian Army Officer retired

Monday, August 1, 2011

ये ऐसा क्यों कि कुछ भी पूरा नहीं लगता..


किसी एक रोज़ शाम के धुंधलके से होकर,
तेरा हाथ थामें यूं ही रात में उतरूं ...
छान रही हो चांदनी तेरा मुझमें समाये होने का हर अहसास, मेरे ही आँगन के नीम से,
और हरसिंगार झड़ता रहे...
इस रात चौखट खुली रहे
मैं निडर हो आसमान में एक गीत उछाल दूं
लिख दूं नीली आसमानी छत पर
"मुझे अब बिन तुम्हारे कुछ अच्छा नहीं लगता..."
ये ऐसा अचानक ऐसा क्यों,
कि अपने आपको ही अधूरी लगती हूँ..
ये ऐसा क्यों,
कि कुछ भी पूरा नहीं लगता..

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