बचपन के निश्छल खिलौनों वाले, दूर भागते सच को पकड़ता हूँ,
गांव वाले सौंधे चूल्हे की खुशबू, शहर के धुएँ में ढूँढता हूँ,
ज़िंदगी की पल दर पल घूमती तकली में,
रिश्तों की सूत साधे, हर वक्त, वक्त के धागे कातता हूँ,
जो भी कुछ लोगों को पहने ओढ़े देखता हूँ ,
अपने शब्दों में कागज़ पर उकेरता हूँ,
बड़े ही कामयाब लोग कायम हैं इस मैदान में,
जो लिखते हैं, छपते हैं और बिकते भी हैं,
मैं तो बस दोस्तों से पूछ लेता हूँ , "आज कल मैं भी लिखता हूँ, मुझे पढ़ते हो,
चलो इतना तो बताओ, तुम्हें कैसा लगता हूँ...
Dil se poochoo.... kaise lagte ho?
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