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Friday, November 18, 2011

वो निजि-जीवन में निपात/नाकाम क्यूँ ?


बीतें पलों को गठरी में बाँधे रक्खा है, 
जीवन में लगे ग्रहण को पता नहीं क्यों साधे रक्खा है, 
सरल सी ज़िंदगी में वलय डाल रक्खा है, 
सादगी को बदलना नहीं होता, 
ना जाने क्यों परिवेश बदला तो वह भी बदली, 
पर समायोजन न कर पाई, जीवन-संघर्ष है यह न जान पाई,
नितांत अकेली रह गयी, अन्तरमुखी होती गयी,
उचित सलाह न मिल पाई, विपदाओं में घिरती गयी, 
रोज रोज की तकरार से उसका विश्वास टूट गया,
और आस्था डगमगा गयी,
बार बार की तकरार में ये तय है कि मन छलनी होता है 
मानस महल के दरवाज़े बंद किये और खुद भी कैद हुई उसमें,
निज-मीमांसा के अधिकार को स्वयं ही त्यज दिया उसने,
मानती है स्वयंसिद्धा, स्वयं को, स्वयं के बुने सक्षम सफल रेशमकोवा आवरण में 
अपने ही अंधियारे में अपने ही विचारों से आशंकित, आत्ममंथन से उत्पन्न भँवर में फँसी सोचती शायद है उसी में कमीं है कोई , 
द्वन्द्वमयी विचारों में खोई अंतर्द्वंद्व का अंत पा न पाई,
सोचता हूँ, 
"अर्थसिद्धा और श्रेष्ठ है जो संसार के लिए, 
वो निजि-जीवन में निपात/नाकाम क्यूँ ?

2 comments:

  1. Pyaar .... bebas karta hai...
    tabhi toh intezaar hai uska jo kabhi
    humara tha hi nahi...

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  2. कितने द्वन्द , अंतर्द्वंद , संघर्ष अपने आप से...
    रोज़ टूटती रोज़ फिर बनती है..
    ऐसा नहीं कि वह प्रयास नहीं करती...
    फिर भी बदलता नहीं बहुत कुछ...
    अंतहीन सा ये जीवनपथ.....

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