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An Indian Army Officer retired

Wednesday, November 23, 2011

डूब जाती हैं जब रंगीन उड़ती तितलियाँ ....
















डूब जाती हैं जब रंगीन उड़ती तितलियाँ
बड़ा अफ़सोस होता है
आँख के पानी से जब टूट जाती हैं पसलियाँ
बड़ा अफ़सोस होता है,
हर एक को बनाया उसने अलग अलग
समझने में हो जाती हैं जब गलतियां
बड़ा अफ़सोस होता है,
बड़े ईमान से चाहा उसे मुस्कुराने की वजह दे दूं ,
हर कोशीश पर छा जाती हैं  जब बदलियाँ
बड़ा अफ़सोस होता है...

Friday, November 18, 2011

वो निजि-जीवन में निपात/नाकाम क्यूँ ?


बीतें पलों को गठरी में बाँधे रक्खा है, 
जीवन में लगे ग्रहण को पता नहीं क्यों साधे रक्खा है, 
सरल सी ज़िंदगी में वलय डाल रक्खा है, 
सादगी को बदलना नहीं होता, 
ना जाने क्यों परिवेश बदला तो वह भी बदली, 
पर समायोजन न कर पाई, जीवन-संघर्ष है यह न जान पाई,
नितांत अकेली रह गयी, अन्तरमुखी होती गयी,
उचित सलाह न मिल पाई, विपदाओं में घिरती गयी, 
रोज रोज की तकरार से उसका विश्वास टूट गया,
और आस्था डगमगा गयी,
बार बार की तकरार में ये तय है कि मन छलनी होता है 
मानस महल के दरवाज़े बंद किये और खुद भी कैद हुई उसमें,
निज-मीमांसा के अधिकार को स्वयं ही त्यज दिया उसने,
मानती है स्वयंसिद्धा, स्वयं को, स्वयं के बुने सक्षम सफल रेशमकोवा आवरण में 
अपने ही अंधियारे में अपने ही विचारों से आशंकित, आत्ममंथन से उत्पन्न भँवर में फँसी सोचती शायद है उसी में कमीं है कोई , 
द्वन्द्वमयी विचारों में खोई अंतर्द्वंद्व का अंत पा न पाई,
सोचता हूँ, 
"अर्थसिद्धा और श्रेष्ठ है जो संसार के लिए, 
वो निजि-जीवन में निपात/नाकाम क्यूँ ?

Thursday, November 17, 2011

~पगली~



वह कोयल सी गीत गाती, गुनगुनाती, वादियों में घूमती,
बसंत का मधुर पान करती, अल्हड झूमती,
अपनी यादें जतन से भूलती, अपने भूत से बहुत देर दूरी रही,
उसने जो चाहा था सो मिल ना सका, शायद कोई  मज़बूरी रही,
बीते दिनों की याद की बदली एक बार फिर से जब छाने लग गयी,
तब बक्से में रक्खी उसकी डायरियों के फूलों से फिर से महक आने लग गयी,
वह आत्म-विस्मृत भटकनों में, भटकती जीने लगी
फिर भूल कर सुध-बुध, अपने आप से प्रश्न करने लगी, मगन-मन, मौन रहने लगी 

Wednesday, November 16, 2011

अब तो हर दिन अपने ही इतिहास में गुज़र होती है....



अब तो हर दिन अपने ही इतिहास में गुज़र होती  है
ज़िंदगी अंधियारों में बसर होती है
यादों की हवेली से कभी तेरी आवाज़ सुनती है तो ,
कभी किसी झरोखे से तेरी आवाज़ गाती है,
मेरे अनंत आकाश पर छा जाती है......

प्रतीक्षा....




~प्रतीक्षा~ 

रात भर ख्वाब बुनकर थकी, 
अधखुले दरीचे से झाँकती पलकों पर ठहरीं, 
बातें और बरसातें.... 

तुम से रिश्ता....


राग कोई भी हो सुहाना लगता
अब तो रोना भी एक बहाना लगता है,
तुमको पाकर सुकून पाया है
तुम से रिश्ता पुराना लगता है

वो मेरी इतनी अच्छी दोस्त...


वो मेरी इतनी अच्छी दोस्त...
उसके पहले प्यार की बातें करती है,
प्यार - पहला प्यार , नासमझ उम्र की कशिश और अल्हड़ जज़्बात !
किसी पहाड़ी झरने सी ,
पश्चिमी घाट के दूर दूर तक फैले बगीचों की पुरवाई,
दक्खन के पठारों से उठी बदलियों सी,
दबे प्यार का इज़हार और वक़्त की उड़ान -
हमेशा कहती "अब वो कहाँ और हम कहाँ !" और न जाने कितनी सारी बातें बाँट लेती है पल भर में,
जाने कितनी तस्वीरें बनती हैं , मिटती हैं उसके मन में , उसके बीते सपनों की...
सोचता हूँ - क्या उम्र से प्यार के एहसास बदल जाते हैं ....
प्यार - यह एक जादुई शब्द है, जिसके जादुई इशारे उम्र के पाश में नहीं होते ...
भले ही कल्पनाओं में कई तरह के चेहरे उभरते हैं, पर प्यार की आँखों में वही पहला चेहरा ठहरा होता है ,
कोई खयाल जब भी कुछ कहता है, लिखता है - पहला प्रेम-पत्र सा होता है !
मुझे मालूम है अब वो मुझसे प्यार करती है...अच्छी लगती है...
पर उसके दिल में अब भी वही पुराने प्यार की बात पलती है,
मेरी अच्छी दोस्त है मुझसे अपने पहले प्यार की बातें करती है....
अच्छी लगती है..

Tuesday, November 15, 2011

यादें.....

यादें दादी के बंद बक्से और माँ की अलमारी में रखे पुराने सामान समान है..
खुल जाये तो छूकर, देखकर, ढूँढ ढूंढ कर मन नहीं भरता...

Monday, November 14, 2011

गुण स्थाई होते हैं....


गुण स्थाई होते हैं
काया नहीं
यही काया एक दिन कृशकाय
तो दूसरे दिन
कंकाल हो जाती है |
इन परिवर्तनों में
समय कब निकल जाता है
पता ही नहीं चल पाता है,
कभी विचार नहीं किया है अपने बारे में...
बस मालूम है मुझे कि ,
जब कभी बादलों में गर्द-गुबार दिखता है,
तो बारिश के साथ आँधी जरूर आती है,
जोर की हवाएँ पेड़ों को झकझोर देतीं हैं,
ऐसे में गुज़रे हुए कल के टूटे हुए मकान के सामनेवाला बरगद बड़ा काम आता है..
अपनी यादों का कम्बल लपेटे उसकी छाँव तले गर्माना, इस कठोर ठण्ड में बहुत भाता है,
वैसे जानता हूँ मैं भी कि बीता हुआ पल कब वापस आता है...  
पके फल तो गिर ही जाते हैं इन तूफानों में,
पर कभी कभी कच्चा भी डाली पर रह नहीं पाता है...

बेटियाँ ...

 बेटियाँ गोदी में ना समाएं ऐसा कितनी जल्दी हो जाता है.... 
पिता का आँगन कितनी जल्दी छोटा हो जाता है...
उसे विदा तो हर बार बड़े शौक से करता हूँ 
पर ना जाने ये आँखों में सावन कहाँ से आ जाता है ..
.

गगन का चाँद छुप छुप कर.....


गन का चाँद छुप छुप कर,
रात रात भर मुझसे बातें करता है,
मेरी बातें सुनता है सहमा सा,
साथ साथ अपनी भी कुछ-कुछ कहता है पगला सा,
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता है, 
और फिर बेचैन हो न जगता, न सोता है,
उसने अपने इर्द गिर्द न जाने कितने जाल बुन लिए हैं,
इस लिए न ज़मीं पर गिरता है, न आसमान में उड़ पाता  है,
कभी कितना डूबा हुआ था समंदर में, कि मोतियों से खेल खेलता था,
मोती ही मोती बाँटता था, लहरों पर उछलता था,
गर्भ में डूब इधर उधर भागती मछलियों के रंग पकडता था,
हँसता रहता था, परिंदों से बातें करता था,
एक बादल को उसकी ये बात पसंद ना आई,
उसने बातों ही बातों में, बातों की बिजलियाँ गिरायीं,
चाँद दूर से ही सहम गया,
बस बादल का मकसद निकल गया........

Sunday, November 13, 2011

लगता है इस बार ये इमारत डूब जायेगी.....


स्वप्न अभी तक हर बार आंखों में तैरता रहा,
पर इस बार उसकी नींव, तेज बाढ़ ने हिला दी,
वो हर साल दीवाली के बहाने से आँगन पर सफेदी की चादर बिछा देती थी
घर के चेहरे की रौनक बढ़ा चढ़ा देती थी,
पर इस बार बहुत तेज तूफ़ान और बारिश लगातार चलती रही है,
उसने हर बार अपनी पसलियों की मजबूत दीवार पर बड़ा नाज़ किया है,
पर इस बार बदलियों की नज़र कुछ बदली बदली सी है,
आसमान से बरसना था आँखों पर झूली हैं...
पलकें अब बाँध नहीं रोक पायेंगी
लगता है इस बार ये इमारत डूब जायेगी...

वो भावनाओं में कुछ रीती सी है....


वो भावनाओं में कुछ रीती सी है,
दिल में कुछ
दिमाग में कुछ
जुबां पर कुछ,  
उसके दिल का दिमाग से,
दिमाग का जुबां से रिश्ता, 
शायद उसके बस में नहीं अब 
वो संवाद क्या करे,
वो अपने ही भाव नहीं पढ़ पाती आजकल 
अब उस भीड़ में अकेली को, 
अर्थहीन शब्द, औपचारिक संवाद,....
सुनने की आदत हो गयी है,
रिश्तों की भीड़ में बस एक अपना ढूंढती थक चुकीं उसके मन की आंखें, 
बोझिल हो अब सो गयी हैं....

Saturday, November 12, 2011

चलो इतना तो बताओ......



बचपन के निश्छल खिलौनों वाले, दूर भागते सच को पकड़ता हूँ, 
गांव वाले सौंधे चूल्हे की खुशबू, शहर के धुएँ में ढूँढता हूँ,
ज़िंदगी की पल दर पल घूमती तकली में,
रिश्तों की सूत साधे, हर वक्त, वक्त के धागे कातता हूँ, 
जो भी कुछ लोगों को पहने ओढ़े देखता हूँ ,
अपने शब्दों में कागज़ पर उकेरता हूँ,
बड़े ही कामयाब लोग कायम हैं इस मैदान में,
जो लिखते हैं, छपते हैं और बिकते भी हैं,
मैं तो बस दोस्तों से पूछ लेता हूँ , "आज कल मैं भी लिखता हूँ, मुझे पढ़ते हो,
 चलो  इतना तो बताओ, तुम्हें कैसा लगता हूँ... 

Wednesday, November 9, 2011

उसने फूलों से फरेब खाया है.....



वो खुशबूओं के शहर से आती है,
इस लिए हवा उसे बहुत जल्द उड़ा ले जाती है,
उसने फूलों  से  फरेब खाया है  
शीशे की  कैद  में अपना मकाँ बनाया है
रहे महफूज़ चाहे वो सिमटी सी इन दीवारों में,
खुशबू है वो उसकी दुनिया तो  है बहारों में,
उसकी फितरत है बिखरना 
और महक छोड़ जाना 
इक दिन बाहर उसे होगा आना 
दूर तलक होगा जाना  


आज उन्हें जी कहकर पुकारा तो उन्हें अच्छा लगा 
बड़े लोगों को अपना  सम्मान अच्छा लगा,
मैंने ख्वाब बुन लिया था  उनसे दोस्ती का 
टूटा  मगर, 
अपना सामान था
उसका हर टुकड़ा समेटना अच्छा लगा

कोर्पोरेट का कामगार.....


                                                                         
वो आजकल रात रात भर सोता नहीं,
उसे सपनों के टूटने का डर सताता है,
अब वो जागती आँखों से सपने देखता है,
और अपनी ज़िंदगी की गुलेल से,
दूसरे के खेतों की चिडियाएँ उड़ाता है 

कड़वा सच....




तू  बस छू भर ले,
मैं तेरा  हो जाऊं...
हमेशा के लिए तेरी,
बाहों में खो जाऊँ...
मौत तू बहुत भली है, कि तू वादे की पक्की है,
वरना ये लोग तो तुझे भी धोखा देने का मन रखते हैं,
इस कड़वी सच्चाई से मुँह मोड़ने का फन रखते हैं..


Tuesday, November 8, 2011

कुछ स्वप्न गढे...


कुछ स्वप्न गढे, 
'आम' आदमी की तरह,
'खास' लोगों के....
न उन्होंने हमें कुछ समझा,
न हम उन्हें समझ पाए....

Friday, November 4, 2011

हर रोज़ अँधेरी रातों में.....


मेरी ज़िंदगी पीती है,
हर रोज़ अँधेरी रातों में,
कुछ हथेली को पलकों पर मल कर, 
होंठों तले दबा लेती है,
दिन भर के चक्रव्यूह में घुटा कड़वा सच...... 

एक खुशी कहती थी जो हरपल...


एक खुशी कहती थी हरपल, 
तुम बिन मैं, मर जाऊंगी,
आज वो खुशी-खुशी,
किसी और के नाम हो गई,
मैं सुबह का कोहरा पिघलते देखता रहा, जंगलों के घनेरे में, 
मालूम ही न हुआ कैसे, कब ये शाम हो गयी 

Thursday, November 3, 2011

ख्वाब बहुत टटोला मगर ....


आँखों को खारे पानी से कुछ ऐसा प्यार हुआ,
कि पिघले धुंधलके से निकला हर मौसम बेज़ार हुआ,
आँख कली सी रातभर सहमी रही 
पलक पंखुड़ी सी ओस पकडे रही  
जो भी आस पास था, दीवारें निगल गयी  
ख्वाब बहुत टटोले मगर, वक्त की आंच में सारी उंगलियाँ जल गई...