हमारी मित्रता तो यथार्थ के धरातल पर टिकी है,
वास्तविकता के आधार पर नींव उसकी टिकी है,
फिर प्यार सिर्फ प्यार है,
प्यार में दिखावा कैसा....
प्यार मतलब सिर्फ "विश्वास"
और विश्वास में प्रतिशत नहीं होता,
वो या है या नहीं है होता,
प्रेम मूक अभिव्यक्ति है,
बिन शब्दों के भी कानों में घुलता है,
मन को छूता है,
भौतिक प्रेम हमेशा खोने का डर ढोता है,
आत्मिक प्रेम अमर होता है,
वो शारीरिक स्पर्श नहीं,
आत्मा की अनुभूति होता है,
इसलिए उसमे आत्मविश्वास होता है,
उसके दोनों और के पात्रों की आत्मा एक दूसरे पर विश्वास करती हैं,
और जन्मजन्मांतर के बंधन में बंध जाती है,
इसलिए खोने का डर नहीं होता,
बिना मिले भी,
बिना छुए भी,
बिना खोखला अधिकार लिए,
वो अपने सत्य को पहचानता है,
दृढ़ रहता है,
बिखरता नहीं,
प्रेम का पहला कदम ही यदि "रूप-स्वरूप" हो तो हरदम संशय रहता है,
यदि पहली सीढ़ी "मन" से जुडी हो तो,
रोज मिलने की इच्छा नहीं होती लालच नहीं होता,
"वक्ते ज़रूरत सिर्फ उसका नाम मन में उमड़े,
जब दिल घबराये उसका कंधा साथ लगे,
जब अकेले हों उसके सपनों की आहट संगीत सी आसपास चले
जब कभी भी सफर में हों उसका हाथ हाथ में लगे,
हरदम ये सच कायम रहे कि
तुम कही ठोकर खाओ तो वो कहीं भी हो जान जाये....."
चलो, मुझे ये बहुत अच्छा लगा कि मैंने कहा और तुमने मान लिया
इस मेरे समझाए सत्य को जान लिया,
कि "अनुभूतियों का, भावनाओं का अपना मोल है,
यह खोखले अधिकारों का पिंजरा है उसमें भी कोई खुशी और प्रेम का कोना है, जो तुम्हें ढूँढना है,
मेरे और तुम्हारे जैसे इंसानों में
अंतर्यामी होने का गुण बसा लगता है...
क्योंकि तुम हरदम यूं लगती हो जैसे मुझे पूर्णता से जानती हो,
मुझे यूं भी लगता है कि मैं तुम्हें पूर्णता से जानता हूँ...
प्रीत पाश नहीं...
प्रीत विश्वास है.....