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An Indian Army Officer retired

Tuesday, December 20, 2011

जो अपना घर बुहारा...


घर लौट के आया हूँ यही घर है हमारा
परदेस बस गए तो कोई तीर न मारा
सुविधाओं को खाएं पियें ओढ़ें भी तो कब तक
अपनों के बिना होता नहीं अपना गुज़ारा
वसुधा कुटुंब है मगर पहले कुटुंब है
दुनिया चमक उठेगी जो अपना घर बुहारा...

Thursday, December 15, 2011

मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा.......


इस ठिठुरती ठंड में,
मेरा ग़म क्यों नहीं ज़रा जम जाता,
पिघल-पिघल कर बार-बार आखों से क्यों है निकल आता ।
घने से इस कोहरे में,
हाथों से अपने चेहरे को नहीं हूँ ढुँढ पाता,
फिर कैसे उसका चेहरा बार-बार नज़रों के सामने है आ जाता ।
छिपा गोधूली की ओट में,
वो मेरे खेत की मुंडेर पर बैठा मेरा बचपन,
कभी अंगुली पकड़ता कभी मेरे ख्वाबो के हाथ दबाता ।
बर्फीली इन रातों में,
अलाव में ज़लकर कई लम्हें धुँआ बनकर है उड़ जाते,
बस कुछ पुरानी यादों की राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।
अब दिन इतने है छोटे
कि सुबह होते ही शाम चौखट पर नज़र आती है,
शाम से अब डर नहीं लगता,
सर्दी तो वही पुरानी सी है,
पर पहले बस ठंड थी,
अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है,
मुझे मेरे बचपन से मिलाती हैं,
मैं तब गर्वित होने के पैंतरे बुना करता था, आज उस जाल से निकल,
मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा,
सर्दी में खुले आसमान के तले अलाव जलाऊँगा,
गर्मी में घर पर फिर से चौपाल जमाऊंगा,
बरसातों में कीचड सने पैर लिए आँगन में आऊंगा, माँ की झिड़की खाऊँगा,
मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा.....
अब सांझे चूल्हे पर सिकी रोटी होगी,
गुड की मिठास और दही के शगुन होंगे ,
नीम की छाँव और मूँज की खटिया होगी,
सपनों और सितारों के बीच नहीं होंगे धुंए के बादल,
ढूंढ निकालूँगा बूढ़ी नानी की कहानियों को,
दादा के हुक्के को,
मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर के रंगीन इन्द्रधनुष को,
जिस से निकले बाणों ने मेरी सादगी को भेदा है,
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर की सडको पर दौडती मृग मरीचिका को,
जिस के पीछे दौड़ते मेरे पैरों ने खेलना छोड़ दिया है,
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर की ऊँची ऊँची इमारतों को,
जिनकी पतली दीवारों में बातें तो हैं पर बात नहीं,
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर के उन तमाम कागजों को,
जिनमें मेरी हस्ती की खरीद फरोख्त, मेरी गुलामी का हिसाब लिखा है,
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर के खोखले आवरण को,
जिसमे मेरी उमंग ने घुट घुट के दम तोडा है ,
अब में सीपी नहीं मोती सा जीना चाहता हूँ
रंगों से नहीं धूल में चमकना चाहता हूँ
कागज से नहीं दिल से जुडना चाहता हूँ,
मकान में नहीं घर में रहना चाहता हूँ,
यहाँ तो मैं जीते जी मर जाऊँगा ,
मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा ।
© 2011 कापीराईट सेमन्त हरीश

Tuesday, December 13, 2011

बोलो तुम कल आओगे ना....


लबालब रेत के  तालाब के पास
ओस के मोतियों से बांधी पाल,
पाल पर बस सिर्फ हाथों की लकीरों के,
हिसाब-किताब की बातें,

आज आँधियों की बात पर, रेत के तालाब की लहर की खिलखिलाहट भरी हंसी, निशब्द अंतर्मन में  संगीत सी फ़ैली  है, उसका कहना है "अब ये आंधी तुम्हारे मेरे पैरों के निशाँ ढँक सकती है मिटा नहीं सकती ...

उधर शाम की लालिमा का सिन्दूर अपनी माँग में भरे, क्षितिज की कोर पर, ओस की पाल, सपनों की ओढ़नी में सितारे काढ रही है...
उसे विश्वास है अपनी प्रीत पर...

कल सोने से लहराते तालाब के किनारे,
मृगजल की जलतरंग खनकेगी दिनभर,
कल 'मैं' तपती रेत, मुट्ठी में भर उडाता, हवाओं की दिशा,
'तुमसे' पूछूँगा,

बोलो तुम कल आओगे ना....


© 2011 Capt. Semant 



Friday, December 9, 2011

तुम्हें चाहने की वज़ह ......

















कल रात छत पर सितारों से बात करता रहा, हर एक सितारे से मिलाता रहा तुम्हें चाहने की वज़ह,
सब कुछ बहुत सही और खूबसूरत रहा बस तब तक, जब तक कि सारे सितारे खत्म ना हो गए.....
तुम्हें चाहने की वज़ह की ढेरी में अब भी बहुत कुछ बाकी है....... © Capt. Semant

Tuesday, December 6, 2011

आशा जीवन गढ़ती है ....


अनंत आशा है मानव की आँखों में,
आश्रय पाती स्वयं, स्वयं की बाँहों में,
एक स्वप्न उस अरुणिम प्रभात का, जो चढ़ता नित उषाकाल,
क्यों तपता वह हरदम दिनभर, जब प्रारब्ध सूर्यास्त,
पर सुन्दर रहे चारों प्रहर,
यह चाहत भी रहती है,
सूर्यास्त नियति है,
आशा जीवन गढ़ती है...



Saturday, December 3, 2011

उसने यूं ही कह दिया मुझे आज़ाद उड़ना है...



उसने यूं ही कह दिया मुझे आज़ाद उड़ना है...
मैंने आसमान सी बाहें फैला दी......

Thursday, December 1, 2011

मैं भ्रमर, बावरा उसका.....


मैं भ्रमर, बावरा उसका,
वो कुसुम अधखुला,
मैं ह्रदय भावना बहा रहा,
वो मन भीरु अधखुला,
मैं दर्पण निर्मल सपाट,
वो घूँघट पट अधखुला,
मैं आगंतुक प्रत्याशा में,
वो द्वार है अधखुला 

Wednesday, November 23, 2011

डूब जाती हैं जब रंगीन उड़ती तितलियाँ ....
















डूब जाती हैं जब रंगीन उड़ती तितलियाँ
बड़ा अफ़सोस होता है
आँख के पानी से जब टूट जाती हैं पसलियाँ
बड़ा अफ़सोस होता है,
हर एक को बनाया उसने अलग अलग
समझने में हो जाती हैं जब गलतियां
बड़ा अफ़सोस होता है,
बड़े ईमान से चाहा उसे मुस्कुराने की वजह दे दूं ,
हर कोशीश पर छा जाती हैं  जब बदलियाँ
बड़ा अफ़सोस होता है...

Friday, November 18, 2011

वो निजि-जीवन में निपात/नाकाम क्यूँ ?


बीतें पलों को गठरी में बाँधे रक्खा है, 
जीवन में लगे ग्रहण को पता नहीं क्यों साधे रक्खा है, 
सरल सी ज़िंदगी में वलय डाल रक्खा है, 
सादगी को बदलना नहीं होता, 
ना जाने क्यों परिवेश बदला तो वह भी बदली, 
पर समायोजन न कर पाई, जीवन-संघर्ष है यह न जान पाई,
नितांत अकेली रह गयी, अन्तरमुखी होती गयी,
उचित सलाह न मिल पाई, विपदाओं में घिरती गयी, 
रोज रोज की तकरार से उसका विश्वास टूट गया,
और आस्था डगमगा गयी,
बार बार की तकरार में ये तय है कि मन छलनी होता है 
मानस महल के दरवाज़े बंद किये और खुद भी कैद हुई उसमें,
निज-मीमांसा के अधिकार को स्वयं ही त्यज दिया उसने,
मानती है स्वयंसिद्धा, स्वयं को, स्वयं के बुने सक्षम सफल रेशमकोवा आवरण में 
अपने ही अंधियारे में अपने ही विचारों से आशंकित, आत्ममंथन से उत्पन्न भँवर में फँसी सोचती शायद है उसी में कमीं है कोई , 
द्वन्द्वमयी विचारों में खोई अंतर्द्वंद्व का अंत पा न पाई,
सोचता हूँ, 
"अर्थसिद्धा और श्रेष्ठ है जो संसार के लिए, 
वो निजि-जीवन में निपात/नाकाम क्यूँ ?

Thursday, November 17, 2011

~पगली~



वह कोयल सी गीत गाती, गुनगुनाती, वादियों में घूमती,
बसंत का मधुर पान करती, अल्हड झूमती,
अपनी यादें जतन से भूलती, अपने भूत से बहुत देर दूरी रही,
उसने जो चाहा था सो मिल ना सका, शायद कोई  मज़बूरी रही,
बीते दिनों की याद की बदली एक बार फिर से जब छाने लग गयी,
तब बक्से में रक्खी उसकी डायरियों के फूलों से फिर से महक आने लग गयी,
वह आत्म-विस्मृत भटकनों में, भटकती जीने लगी
फिर भूल कर सुध-बुध, अपने आप से प्रश्न करने लगी, मगन-मन, मौन रहने लगी 

Wednesday, November 16, 2011

अब तो हर दिन अपने ही इतिहास में गुज़र होती है....



अब तो हर दिन अपने ही इतिहास में गुज़र होती  है
ज़िंदगी अंधियारों में बसर होती है
यादों की हवेली से कभी तेरी आवाज़ सुनती है तो ,
कभी किसी झरोखे से तेरी आवाज़ गाती है,
मेरे अनंत आकाश पर छा जाती है......

प्रतीक्षा....




~प्रतीक्षा~ 

रात भर ख्वाब बुनकर थकी, 
अधखुले दरीचे से झाँकती पलकों पर ठहरीं, 
बातें और बरसातें.... 

तुम से रिश्ता....


राग कोई भी हो सुहाना लगता
अब तो रोना भी एक बहाना लगता है,
तुमको पाकर सुकून पाया है
तुम से रिश्ता पुराना लगता है

वो मेरी इतनी अच्छी दोस्त...


वो मेरी इतनी अच्छी दोस्त...
उसके पहले प्यार की बातें करती है,
प्यार - पहला प्यार , नासमझ उम्र की कशिश और अल्हड़ जज़्बात !
किसी पहाड़ी झरने सी ,
पश्चिमी घाट के दूर दूर तक फैले बगीचों की पुरवाई,
दक्खन के पठारों से उठी बदलियों सी,
दबे प्यार का इज़हार और वक़्त की उड़ान -
हमेशा कहती "अब वो कहाँ और हम कहाँ !" और न जाने कितनी सारी बातें बाँट लेती है पल भर में,
जाने कितनी तस्वीरें बनती हैं , मिटती हैं उसके मन में , उसके बीते सपनों की...
सोचता हूँ - क्या उम्र से प्यार के एहसास बदल जाते हैं ....
प्यार - यह एक जादुई शब्द है, जिसके जादुई इशारे उम्र के पाश में नहीं होते ...
भले ही कल्पनाओं में कई तरह के चेहरे उभरते हैं, पर प्यार की आँखों में वही पहला चेहरा ठहरा होता है ,
कोई खयाल जब भी कुछ कहता है, लिखता है - पहला प्रेम-पत्र सा होता है !
मुझे मालूम है अब वो मुझसे प्यार करती है...अच्छी लगती है...
पर उसके दिल में अब भी वही पुराने प्यार की बात पलती है,
मेरी अच्छी दोस्त है मुझसे अपने पहले प्यार की बातें करती है....
अच्छी लगती है..

Tuesday, November 15, 2011

यादें.....

यादें दादी के बंद बक्से और माँ की अलमारी में रखे पुराने सामान समान है..
खुल जाये तो छूकर, देखकर, ढूँढ ढूंढ कर मन नहीं भरता...

Monday, November 14, 2011

गुण स्थाई होते हैं....


गुण स्थाई होते हैं
काया नहीं
यही काया एक दिन कृशकाय
तो दूसरे दिन
कंकाल हो जाती है |
इन परिवर्तनों में
समय कब निकल जाता है
पता ही नहीं चल पाता है,
कभी विचार नहीं किया है अपने बारे में...
बस मालूम है मुझे कि ,
जब कभी बादलों में गर्द-गुबार दिखता है,
तो बारिश के साथ आँधी जरूर आती है,
जोर की हवाएँ पेड़ों को झकझोर देतीं हैं,
ऐसे में गुज़रे हुए कल के टूटे हुए मकान के सामनेवाला बरगद बड़ा काम आता है..
अपनी यादों का कम्बल लपेटे उसकी छाँव तले गर्माना, इस कठोर ठण्ड में बहुत भाता है,
वैसे जानता हूँ मैं भी कि बीता हुआ पल कब वापस आता है...  
पके फल तो गिर ही जाते हैं इन तूफानों में,
पर कभी कभी कच्चा भी डाली पर रह नहीं पाता है...

बेटियाँ ...

 बेटियाँ गोदी में ना समाएं ऐसा कितनी जल्दी हो जाता है.... 
पिता का आँगन कितनी जल्दी छोटा हो जाता है...
उसे विदा तो हर बार बड़े शौक से करता हूँ 
पर ना जाने ये आँखों में सावन कहाँ से आ जाता है ..
.

गगन का चाँद छुप छुप कर.....


गन का चाँद छुप छुप कर,
रात रात भर मुझसे बातें करता है,
मेरी बातें सुनता है सहमा सा,
साथ साथ अपनी भी कुछ-कुछ कहता है पगला सा,
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता है, 
और फिर बेचैन हो न जगता, न सोता है,
उसने अपने इर्द गिर्द न जाने कितने जाल बुन लिए हैं,
इस लिए न ज़मीं पर गिरता है, न आसमान में उड़ पाता  है,
कभी कितना डूबा हुआ था समंदर में, कि मोतियों से खेल खेलता था,
मोती ही मोती बाँटता था, लहरों पर उछलता था,
गर्भ में डूब इधर उधर भागती मछलियों के रंग पकडता था,
हँसता रहता था, परिंदों से बातें करता था,
एक बादल को उसकी ये बात पसंद ना आई,
उसने बातों ही बातों में, बातों की बिजलियाँ गिरायीं,
चाँद दूर से ही सहम गया,
बस बादल का मकसद निकल गया........

Sunday, November 13, 2011

लगता है इस बार ये इमारत डूब जायेगी.....


स्वप्न अभी तक हर बार आंखों में तैरता रहा,
पर इस बार उसकी नींव, तेज बाढ़ ने हिला दी,
वो हर साल दीवाली के बहाने से आँगन पर सफेदी की चादर बिछा देती थी
घर के चेहरे की रौनक बढ़ा चढ़ा देती थी,
पर इस बार बहुत तेज तूफ़ान और बारिश लगातार चलती रही है,
उसने हर बार अपनी पसलियों की मजबूत दीवार पर बड़ा नाज़ किया है,
पर इस बार बदलियों की नज़र कुछ बदली बदली सी है,
आसमान से बरसना था आँखों पर झूली हैं...
पलकें अब बाँध नहीं रोक पायेंगी
लगता है इस बार ये इमारत डूब जायेगी...

वो भावनाओं में कुछ रीती सी है....


वो भावनाओं में कुछ रीती सी है,
दिल में कुछ
दिमाग में कुछ
जुबां पर कुछ,  
उसके दिल का दिमाग से,
दिमाग का जुबां से रिश्ता, 
शायद उसके बस में नहीं अब 
वो संवाद क्या करे,
वो अपने ही भाव नहीं पढ़ पाती आजकल 
अब उस भीड़ में अकेली को, 
अर्थहीन शब्द, औपचारिक संवाद,....
सुनने की आदत हो गयी है,
रिश्तों की भीड़ में बस एक अपना ढूंढती थक चुकीं उसके मन की आंखें, 
बोझिल हो अब सो गयी हैं....

Saturday, November 12, 2011

चलो इतना तो बताओ......



बचपन के निश्छल खिलौनों वाले, दूर भागते सच को पकड़ता हूँ, 
गांव वाले सौंधे चूल्हे की खुशबू, शहर के धुएँ में ढूँढता हूँ,
ज़िंदगी की पल दर पल घूमती तकली में,
रिश्तों की सूत साधे, हर वक्त, वक्त के धागे कातता हूँ, 
जो भी कुछ लोगों को पहने ओढ़े देखता हूँ ,
अपने शब्दों में कागज़ पर उकेरता हूँ,
बड़े ही कामयाब लोग कायम हैं इस मैदान में,
जो लिखते हैं, छपते हैं और बिकते भी हैं,
मैं तो बस दोस्तों से पूछ लेता हूँ , "आज कल मैं भी लिखता हूँ, मुझे पढ़ते हो,
 चलो  इतना तो बताओ, तुम्हें कैसा लगता हूँ... 

Wednesday, November 9, 2011

उसने फूलों से फरेब खाया है.....



वो खुशबूओं के शहर से आती है,
इस लिए हवा उसे बहुत जल्द उड़ा ले जाती है,
उसने फूलों  से  फरेब खाया है  
शीशे की  कैद  में अपना मकाँ बनाया है
रहे महफूज़ चाहे वो सिमटी सी इन दीवारों में,
खुशबू है वो उसकी दुनिया तो  है बहारों में,
उसकी फितरत है बिखरना 
और महक छोड़ जाना 
इक दिन बाहर उसे होगा आना 
दूर तलक होगा जाना  


आज उन्हें जी कहकर पुकारा तो उन्हें अच्छा लगा 
बड़े लोगों को अपना  सम्मान अच्छा लगा,
मैंने ख्वाब बुन लिया था  उनसे दोस्ती का 
टूटा  मगर, 
अपना सामान था
उसका हर टुकड़ा समेटना अच्छा लगा

कोर्पोरेट का कामगार.....


                                                                         
वो आजकल रात रात भर सोता नहीं,
उसे सपनों के टूटने का डर सताता है,
अब वो जागती आँखों से सपने देखता है,
और अपनी ज़िंदगी की गुलेल से,
दूसरे के खेतों की चिडियाएँ उड़ाता है 

कड़वा सच....




तू  बस छू भर ले,
मैं तेरा  हो जाऊं...
हमेशा के लिए तेरी,
बाहों में खो जाऊँ...
मौत तू बहुत भली है, कि तू वादे की पक्की है,
वरना ये लोग तो तुझे भी धोखा देने का मन रखते हैं,
इस कड़वी सच्चाई से मुँह मोड़ने का फन रखते हैं..


Tuesday, November 8, 2011

कुछ स्वप्न गढे...


कुछ स्वप्न गढे, 
'आम' आदमी की तरह,
'खास' लोगों के....
न उन्होंने हमें कुछ समझा,
न हम उन्हें समझ पाए....

Friday, November 4, 2011

हर रोज़ अँधेरी रातों में.....


मेरी ज़िंदगी पीती है,
हर रोज़ अँधेरी रातों में,
कुछ हथेली को पलकों पर मल कर, 
होंठों तले दबा लेती है,
दिन भर के चक्रव्यूह में घुटा कड़वा सच...... 

एक खुशी कहती थी जो हरपल...


एक खुशी कहती थी हरपल, 
तुम बिन मैं, मर जाऊंगी,
आज वो खुशी-खुशी,
किसी और के नाम हो गई,
मैं सुबह का कोहरा पिघलते देखता रहा, जंगलों के घनेरे में, 
मालूम ही न हुआ कैसे, कब ये शाम हो गयी 

Thursday, November 3, 2011

ख्वाब बहुत टटोला मगर ....


आँखों को खारे पानी से कुछ ऐसा प्यार हुआ,
कि पिघले धुंधलके से निकला हर मौसम बेज़ार हुआ,
आँख कली सी रातभर सहमी रही 
पलक पंखुड़ी सी ओस पकडे रही  
जो भी आस पास था, दीवारें निगल गयी  
ख्वाब बहुत टटोले मगर, वक्त की आंच में सारी उंगलियाँ जल गई...

Wednesday, September 21, 2011


उसे ज़मीन का पता हो कैसे
बुलंदियों में वो जो खो गया है..
अपनों से दूर ले गए उसके ख्वाब उसे
वो कामयाबी अकेले ढो रहा है...

Tuesday, September 13, 2011

वो .....आयेगा ज़रूर .......


वो .....आयेगा ज़रूर
और ये दरवाजा खुल जायेगा
अपने आप...
प्रीत राह ताकती...
दिए की बाती से बतियाती...
वो मन में बसा है...
ये देह की दिवार....नहीं तो मैं तो उसकी पूरी ...
और इस ह्रदय की गुमसुम सी उड़ान
जुगनू सा मन जगमगाता
इस मधुर रात्रि के तारों सा फैला आँचल
राग राग रग रग में उसका
सिन्दूर सांस में घुलता सा
मंगल सूत्र में लपेटे सपने
उँगलियों में उलझती सर्पिणी
मन का आँगन सोंधी मिट्टी की खुशबू से लबरेज
दरवाज़ा खुला है
लगता है वो हवा का झोंका
इधर से गुजरेगा ज़रूर, चाँद के जाने से पहले.....
और रात मुझे दे जायेगा ...

Saturday, September 10, 2011


निगाह छलने लगे तो ठीक...
वरना बरसते मौसम में भीगी किताब के पन्ने मुड़े मुड़े से ..... 
सूखे फूलों की कहानी का हिसाब करते रहते हैं.... 
सवाल जवाब गर्द के आगोश में दबे रहते हैं...
कुछ नहीं कहते पर कुछ तो कहते हैं....

Tuesday, September 6, 2011

वक्त यूं ही मुट्ठी में बंद किया होता
उसके हाथों में अपना हाथ लिया होता...
कुछ बात तो है इस बात में कि इतनी दूर होकर भी ऐसा लगता है कि  'ऐसा हुआ होता तो ऐसा हुआ होता....."

Monday, September 5, 2011

एक बादल...


यूं तो हो कि  उसके होने का अहसास हरदम बना रहे 
वो दूर ही सही उसका स्पर्श बना रहे
वो अपनी छत पर हर सुबह काली ज़ुल्फ़ लहराता रहे
एक बादल हर रात मुझमें चांदनी छानता रहे

Saturday, September 3, 2011


दर्द सीने में छिपा रक्खा है,
हमने अश्कों को महबूब बना रक्खा है......

Tuesday, August 30, 2011

इस मन की बंजर खेती को एक बारिश का इन्तेज़ार......

अपनी उम्मीदों की धरती
अपनी आशाओं का आकाश ...
हर मौसम में अब इस मन की बंजर खेती को एक बारिश का इन्तेज़ार रहता है,
ये नीला अम्बर अब हर प्रहर तुम्हारे रंग भरता है,
इन्द्रधनुष के... चांदनी के... अमावस के ...
कभी प्यास तुम मुझही को लगते हो,
कभी मैं तुम्हें पीकर प्यासी होने लगती हूँ,
अब तो ये शाश्वत है कि, लौटा नहीं सकते तुम मुझे,
मेरे हिस्से की ज़मीं, मेरा आकाश
क्योंकि अब मैं नहीं हूँ मैं ...
मैं तो हो गयी हूँ तुम,
सच एक बार फिर कहो,
और बार बार कहो कि,
"तुम हरदम मेरे मन के कच्चे आँगन की खुशबू बनकर रहोगे..."


Wednesday, August 24, 2011

अग्नि परीक्षा.....


तुम्हें लगता है मेरा झूठ सच्चा है,
मुझे लगता है तुम्हारा, मेरे सच पर शक करना झूठा है,
क्या यूं ही जीवन बीतेगा,
अग्नि परीक्षा देते हुए,
इस व्यथा कथा में सीता का पात्र यदि मेरा,
तो तुम राम क्यों नहींअश्वमेघ की वेदी पर तुम "अकेले" क्यों नहीं,
मेरी मृत संवेदनहीन स्वर्ण मंडित प्रतिमा से किस छल को सत्य सिद्ध करना चाहते हो,
मेरे वेदना से पीले चेहरे पर हरदम घुटी घुटी हँसी का निर्णय तुम्हारा क्यों,
मैं क्यों सदा सिर्फ कृत्रिम शृंगार करूँ,
मेरा ह्रदय स्वतंत्र क्यों नहीं,
संवेदना तुम्हारी मेरी वेदना का मरहम क्यों नहीं... 

Tuesday, August 23, 2011

स्वप्न को कोई कब छीन पाया है....

बस इतना कहना चाहता हूँ

कि क्या तुम इतना भी नहीं जानते
कि बिना भाव के शब्द
खोखले होते हैं ....
उनके आरपार देखा जा सकता है
इतना आरपार कि फिर कहनेवाले को
आजमाने की जरूरत भी नहीं रहती..
मैं भी तुम्हें अब शायद न आजमाऊं...
कुछ खोखली हो चुकी है,
तुम्हारे शब्दों की किताब...
तभी तो मैंने कुछ पन्नों में जो,
गुलाब दबा रखे थे, वो गिरे पाए फर्श पर....
मैं तब भी तुम्हारे स्वप्न की खुशबू से महकता था,
मैं अब भी उसी खुशबू से महकता रहूँगा,
खुला आकाश रेत से मिलने झुकता रहेगा,
हवा रेत पर लिखे पैरों के निशान मिटाती रहेगी,
वो खुले काले बादल फिर लौटेंगे,
इस बार सिर्फ मेरे गाँव को भिगोने,
किताबों से गिरे गुलाब के फूलों की पंखुडियां,
फिर से हो जायेंगी, भीनी भीनी...
इन मौसमों ने हर बार लौट कर
मेरे विश्वास का हाथ थामा है...
स्वप्न को कोई कब छीन पाया है....

Friday, August 19, 2011

रेत की डगर


पगली सी,
अपने चेहरे पर खींची लकीरों को, हवाओं से संवारती है,
चूमती है पवन को और,
लहर लहर बलखाती है,
ये रेत की डगर है, 
मेरे गांव से तेरे शहर तक,
बार बार जाती है 
मिट जाती है...