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An Indian Army Officer retired

Tuesday, January 29, 2013

प्रीत कभी मरती नहीं...

मुझे मालूम है और तुम भी जान गए हो, कि,
प्रीत कभी मरती नहीं...
बस मुरझा जाती है,
बसंत के बाद फूल झडे पेड़ों को पानी पिलाना भूले - तुम भी , मैं भी,
फिर ये भूलने की भूल स्वीकार भी नहीं कर पाए - तुम भी , मैं भी....
अब तुम मान जाओ तो , हम मिलकर ,
चलो एक बार फिर,
अपने आँगन के बगीचे में जाते हैं ,
क्यारियों में गिरी गुलाबों की हर पंखुड़ी चुन ले आते हैं,
फिर से घर महकाते हैं.......

बस यूं ही....एक बात कहनी थी तुमसे,
मैंने कल रात भर ,
रात !
तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले गुजारी है....
अपने ख्वाब में..... !
© 2013 Capt. Semant

Monday, January 28, 2013

वक्त........!

वक्त !
ये हर बार तुमसे एक ही लडाई ,

तुम्हें मानूं या अपनी सुनूं ,

तुम्हारी अंगुली पकडूँ, साथ चलूँ,
या,
अपना रास्ता चुनूं....

इस उधेड़ बुन में बस यूं ही खड़ा रह गया हूँ , 
अपने स्वप्नगृह के कच्चे आँगन में...दीवारें छोटी हो या बड़ी, दीवार ही होती हैं...

पर स्वप्न बालक से...
रोज़ इस पार उस पार कूदने का खेल खेल लेते हैं,

और, मैं ! 
दरवाज़े से तुम्हें रोज़ बस यूं ही ताकता रह गया हूँ,
पक्की सडक वाली गली से होकर गुजरते, जाते हुए...

न तुम ही कभी रुके,
न मैं ही कभी चल पाया, इतने लम्बे कदम, जितने तुम्हारे..!

© 2012 Capt. Semant

कल रात.........


कल रात अपनी ‘तन्हाई’ से ये कहना भूल गया कि,
मैं अकेला हूँ,

बस ये बात छुपी नहीं और तुम्हारी यादों ने घेर लिया,
रात भर उन दो पलों की मुलाकातों के ढेर सारे फूल पिरोते रहे,
मैं और तुम्हारी याद,

फिर बिखर गया चांदनी की चादर पर स्वप्न का सिन्दूर....

बस यूं ही,
फिर एक बार, बिखर गया चांदनी की चादर पर स्वप्न का सिन्दूर....
और ! ये बात मैंने मान ली,
कि यादें !
तुम्हारे, मेरे और गुज़रे पलों के बीच एक पगडंडी हैं.....

© 2012 Capt. Semant
 

Sunday, January 20, 2013

मैं ! ओस की बूँद.....


मैं ! ओस की बूँद,

बहुत झुलसी तुम्हारी प्रीत में,


अनंत में उठी बादल बनी,


मेरे आकाश !


लो मैं फिर लौट आयी तुम्हारी बाँहों में.... 


बस यूँ ही... हमेशा की तरह....!


© कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'


मेरी पुस्तक 'बस यूँ ह़ी...!' से....

Friday, January 18, 2013

चाह.....!
















चाह छुपाये न छिपी,
आँख बोल पड़ी
चेहरा खिल उठा..

मालूम नहीं क्यों,
न जाने क्यों, बस यूँ ह़ी....जाने अनजाने मेरी शर्म तुम पर दीवानी हुयी..

हुआ फिर कुछ यूँ कि, चाह छुपाये, छुपाई ना गयी...