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An Indian Army Officer retired

Friday, July 20, 2012

सूद.....!

बहुत कुछ छुपाना चाहा है,
ज़िदगी के पन्नों में,
पर छिपता नहीं,
बात अपने हिसाब की, किताब की है,
उधार लिया भी अपनों से ,
उधार दिया भी अपनों ने,
(क़र्ज़ उनकी उम्मीदों का),

मैं किस कदर बोझिल, ये किस से कहूँ !
सूद में हर रोज़ जिन्दा रहती हैं, मुझसे की गयी अपेक्षाएं....

बढ़ बढ़ कर उठ आता हैं,
मेरे रिश्तों से उठी अपेक्षाओं का सूद ....

ये रिश्तों की उधार सिर्फ मेरे सर ही क्यों....
सिर्फ इस लिए कि, मैं एक स्त्री....?

रिश्तों के फ़र्ज़ से दबी मेरी ज़िंदगी
आज तुमसे कुछ मांगती है,
इस बार मुझसे अपने सूद में मेरी अपेक्षाएं ले लो.....!

बस यूँ ही.... एक बार ऐसा करो,
अपने इस रिश्ते के उधार के सूद में,
इस बार,
इस बार ! मुझसे, अपने सूद में, 'मेरी अपेक्षाएं’ ले लो.....!


© 2012 कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'

Thursday, July 12, 2012



चलो मैं आता हूँ ,
क्या फिर तुम भी बाहर आओगे?
मैं जो बरसूँ, तुम भीग पाओगे?

" क्यों नहीं ! ज़रूर, बाहर आऊँगा, 
मुझे आँख का पानी चोरी छुपे बहाना है,
हँसते, गाते, नाचते......


© 2012 कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'

फूलों से कुछ बातें......



१. भीतर जिया हूँ, बाहर जिया हूँ,
कली से मुरझाने तक हरपल जिया हूँ,

खिला हूँ, टूटा हूँ, बिंधा हूँ , बंधा हूँ,
अपनी कहानी का व्यापार जिया हूँ....

फूल हूँ, खुशबू हूँ, खिला हूँ, गिरा हूँ,
इन कुछ दिनों में ही मैं ! "अमर" संसार जिया हूँ...

२.
फिर एक बार तुम्हारा मुझे फूलों सा कह देना अच्छा लगा,
तब से अब तक मन खिला खिला मेरा......
और बस यूँ ही ! एक बसंत बस गया है मेरे आँगन...

३.
फूल ! 
"ये ओस कैसे पकड़ी तुमने?
तपते सूरज से डर नहीं लगता ?
कितनी सी देर की प्रीत होगी ये ?"

"एक बात कहूँ! प्रीत का एक पल ही काफ़ी......की है कभी ?

४.
फूल ! सुनो...
ये तुम मौसम के मुताबिक ही क्यों खिलते बिखरते हो....?
इतने अच्छे लगते हो हमेशा रहा करो ना.. खिले, खुशबू बिखेरते...

" अब सच तो ये कि,
ये इतना आसान भी नहीं, 
हरदम खिले रहना, महकना...
किसी भी युग को किसी की, 'शाश्वत' खुशी बर्दाश्त हुयी है भला,
बस इतना कि बसंत से कुछ रिश्ता अच्छा, सो,
बार बार लौट पाता हूँ, और, 
हर बार थोडा थोडा जी जाता हूँ..... 

५.
फूल ! 
सुनो ......भाई ! 
“ये हर सुबह,
इतने खुश,
मुस्कुराते , 
क्यों और कैसे, खिल जाते हो ?”

“सूरज बनना है, 
किरनें समेटता हूँ,
इस लिए उन्हें गिरने नहीं देता,
अपनी हथेली पर ले लेता हूँ, 
रेखाएं चमक उठती हैं....
चेहरा खिला लगता है....और कुछ पूछना है ?

© 2012 कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'

और अब ऐसे ही रहूँगा ...........















भाई ! सुनो ,
जब से घने जंगलों से होकर आये हो ,
हरवक्त गुनगुनाते रहते हो ऐसा क्यों ?


"कुछ पेड़ों, पक्षियों, फूलों से मुलाकात हुयी थी,
वो शाम ढलते ही सो जाते हैं, 
सुबह जल्दी उठ जाते हैं,
सूरज, चाँद, सितारों, सब को अपने पास पाते हैं,
गुज़रा पल भूल जाते हैं ,
आनेवाले पल की बात नहीं उठाते हैं,
जो पल मुट्ठी में उसी में सब कुछ सजाते हैं, 
'जीवन' गाते हैं, वक्त चहकते, खिलते, महकते, गाते,, दौड़ते, खेलते बिताते हैं,
और,
जब भी मिटते, बुझते, मुरझाते हैं,
आपस में किसी ना किसी के काम आते हैं,
  
आज कल/ उनकी बात/ मैं भी/  वैसे ही जीता हूँ.......
अब मिटूंगा तो याद आऊँगा,
अब बुझुंगा तो याद आऊँगा,
मुरझाऊंगा,
तब भी  किसी ना किसी के काम आऊँगा, 
याद आऊँगा ये जान आया हूँ ठान आया हूँ .....सो गुनगुनाता हूँ...



और अब ऐसे ही रहूँगा ........... 
ये बहुत अच्छा लगता है.... निर्मल, निर्भय और निश्चिन्त होना....!





© 2012 कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'




Wednesday, July 11, 2012

















फूल ! 
"ये ओस कैसे, पकड़ी तुमने?
तपते सूरज से डर नहीं लगता ?
कितनी सी देर की प्रीत होगी ये ?"


"एक बात कहूँ! प्रीत का एक पल ही काफ़ी....    की है कभी ?


© 2012 कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'

एक अध-खुली चिट्ठी.....




सुनो ! 
दोस्त रहे हो कभी, इस लिए कहता हूँ,
जिस दिन मैं बुझूँ उस दिन तो आ जाना ,
उस बिदाई की घड़ी की कुछ रस्में तुम भी निभा जाना ,
अब तक जितना भी कुछ भला-बुरा, 
मेरे हिस्से का, गिना हो तुमने,
कोई बात नहीं,
मैं 'दुश्मन' अब ना रहा, 
इतनी 'तस्सल्ली' ज़रूर पाकर जाना  ....



© 2012 कापीराईट सेमन्त हरीश 'देव'

Thursday, June 21, 2012




नींद निगोडी कहाँ इन आँखों में,
कोसों दूर,
उड़ रही है.. उड़ गयी है... ये उसने कहा,

मैं समझाऊँ उसे,
तो दौड़ो इस तितली को पकड़ो बहुत रंग भरी होती है...
हाथ आई,
तो,
वैसे
और ना आई,
तो,
थक कर पर,
सो पाओगे ज़रूर....

इसे शौक है भीगी पलकों पर आ बैठने का,
सपने सोखने का....