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An Indian Army Officer retired

Tuesday, December 20, 2011

जो अपना घर बुहारा...


घर लौट के आया हूँ यही घर है हमारा
परदेस बस गए तो कोई तीर न मारा
सुविधाओं को खाएं पियें ओढ़ें भी तो कब तक
अपनों के बिना होता नहीं अपना गुज़ारा
वसुधा कुटुंब है मगर पहले कुटुंब है
दुनिया चमक उठेगी जो अपना घर बुहारा...

Thursday, December 15, 2011

मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा.......


इस ठिठुरती ठंड में,
मेरा ग़म क्यों नहीं ज़रा जम जाता,
पिघल-पिघल कर बार-बार आखों से क्यों है निकल आता ।
घने से इस कोहरे में,
हाथों से अपने चेहरे को नहीं हूँ ढुँढ पाता,
फिर कैसे उसका चेहरा बार-बार नज़रों के सामने है आ जाता ।
छिपा गोधूली की ओट में,
वो मेरे खेत की मुंडेर पर बैठा मेरा बचपन,
कभी अंगुली पकड़ता कभी मेरे ख्वाबो के हाथ दबाता ।
बर्फीली इन रातों में,
अलाव में ज़लकर कई लम्हें धुँआ बनकर है उड़ जाते,
बस कुछ पुरानी यादों की राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।
अब दिन इतने है छोटे
कि सुबह होते ही शाम चौखट पर नज़र आती है,
शाम से अब डर नहीं लगता,
सर्दी तो वही पुरानी सी है,
पर पहले बस ठंड थी,
अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है,
मुझे मेरे बचपन से मिलाती हैं,
मैं तब गर्वित होने के पैंतरे बुना करता था, आज उस जाल से निकल,
मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा,
सर्दी में खुले आसमान के तले अलाव जलाऊँगा,
गर्मी में घर पर फिर से चौपाल जमाऊंगा,
बरसातों में कीचड सने पैर लिए आँगन में आऊंगा, माँ की झिड़की खाऊँगा,
मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा.....
अब सांझे चूल्हे पर सिकी रोटी होगी,
गुड की मिठास और दही के शगुन होंगे ,
नीम की छाँव और मूँज की खटिया होगी,
सपनों और सितारों के बीच नहीं होंगे धुंए के बादल,
ढूंढ निकालूँगा बूढ़ी नानी की कहानियों को,
दादा के हुक्के को,
मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर के रंगीन इन्द्रधनुष को,
जिस से निकले बाणों ने मेरी सादगी को भेदा है,
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर की सडको पर दौडती मृग मरीचिका को,
जिस के पीछे दौड़ते मेरे पैरों ने खेलना छोड़ दिया है,
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर की ऊँची ऊँची इमारतों को,
जिनकी पतली दीवारों में बातें तो हैं पर बात नहीं,
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर के उन तमाम कागजों को,
जिनमें मेरी हस्ती की खरीद फरोख्त, मेरी गुलामी का हिसाब लिखा है,
छोड़ जाऊँगा शहर में ही शहर के खोखले आवरण को,
जिसमे मेरी उमंग ने घुट घुट के दम तोडा है ,
अब में सीपी नहीं मोती सा जीना चाहता हूँ
रंगों से नहीं धूल में चमकना चाहता हूँ
कागज से नहीं दिल से जुडना चाहता हूँ,
मकान में नहीं घर में रहना चाहता हूँ,
यहाँ तो मैं जीते जी मर जाऊँगा ,
मैं आज अपने गाँव लौट जाऊँगा ।
© 2011 कापीराईट सेमन्त हरीश

Tuesday, December 13, 2011

बोलो तुम कल आओगे ना....


लबालब रेत के  तालाब के पास
ओस के मोतियों से बांधी पाल,
पाल पर बस सिर्फ हाथों की लकीरों के,
हिसाब-किताब की बातें,

आज आँधियों की बात पर, रेत के तालाब की लहर की खिलखिलाहट भरी हंसी, निशब्द अंतर्मन में  संगीत सी फ़ैली  है, उसका कहना है "अब ये आंधी तुम्हारे मेरे पैरों के निशाँ ढँक सकती है मिटा नहीं सकती ...

उधर शाम की लालिमा का सिन्दूर अपनी माँग में भरे, क्षितिज की कोर पर, ओस की पाल, सपनों की ओढ़नी में सितारे काढ रही है...
उसे विश्वास है अपनी प्रीत पर...

कल सोने से लहराते तालाब के किनारे,
मृगजल की जलतरंग खनकेगी दिनभर,
कल 'मैं' तपती रेत, मुट्ठी में भर उडाता, हवाओं की दिशा,
'तुमसे' पूछूँगा,

बोलो तुम कल आओगे ना....


© 2011 Capt. Semant 



Friday, December 9, 2011

तुम्हें चाहने की वज़ह ......

















कल रात छत पर सितारों से बात करता रहा, हर एक सितारे से मिलाता रहा तुम्हें चाहने की वज़ह,
सब कुछ बहुत सही और खूबसूरत रहा बस तब तक, जब तक कि सारे सितारे खत्म ना हो गए.....
तुम्हें चाहने की वज़ह की ढेरी में अब भी बहुत कुछ बाकी है....... © Capt. Semant

Tuesday, December 6, 2011

आशा जीवन गढ़ती है ....


अनंत आशा है मानव की आँखों में,
आश्रय पाती स्वयं, स्वयं की बाँहों में,
एक स्वप्न उस अरुणिम प्रभात का, जो चढ़ता नित उषाकाल,
क्यों तपता वह हरदम दिनभर, जब प्रारब्ध सूर्यास्त,
पर सुन्दर रहे चारों प्रहर,
यह चाहत भी रहती है,
सूर्यास्त नियति है,
आशा जीवन गढ़ती है...



Saturday, December 3, 2011

उसने यूं ही कह दिया मुझे आज़ाद उड़ना है...



उसने यूं ही कह दिया मुझे आज़ाद उड़ना है...
मैंने आसमान सी बाहें फैला दी......

Thursday, December 1, 2011

मैं भ्रमर, बावरा उसका.....


मैं भ्रमर, बावरा उसका,
वो कुसुम अधखुला,
मैं ह्रदय भावना बहा रहा,
वो मन भीरु अधखुला,
मैं दर्पण निर्मल सपाट,
वो घूँघट पट अधखुला,
मैं आगंतुक प्रत्याशा में,
वो द्वार है अधखुला