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An Indian Army Officer retired

Tuesday, May 31, 2011

अपनी पहचान तेरी आँखों में ढूंढ लेता हूँ,
कुछ सोचता हूँ महसूस करता हूँ शब्दों में गूंद लेता हूँ.

तुझे चोट तो नहीं आयी....

मैं आज भी ना जाने कितनी रातों, 
तार की बाड़ से निकल आम चुरा,
अपने वर्तमान के माली से दूर भाग जाया करता हूँ..
ये सपनों के मौसम में सपने भिगोता हूँ ,
लौट आयी पलट पलट मेरी परछाइयाँ,
छोटे से आँगन में माँ को तरसता हूँ,
अपनी ऊँचाई से गिरने से डरता हूँ,
कौन अब कहेगा, "सम्हालकर चलो भाई ,
इधर दिखा बेटे तुझे चोट तो नहीं आयी..."

कुछ तो हुआ है....


कुछ तो हुआ है..
एक दूर से आये झोंके ने मुझे छुआ है,
दिल के परिंदे के टूटे परों को 
आसमां की बदली का मकसद हुआ है,
ये सूखे बाग-बगीचों में आज,
हौंसलों के सावन का मौसम हुआ है,
रात के अंधेरों में अधखुली खिडकी से ,
कमरे के फर्श पर सवेरा हुआ है,
मुट्ठी से सरक रही समय की इस रेत से,
स्वप्न की दिशा का इशारा हुआ है..... 

Monday, May 30, 2011

कुछ देर तो चल मेरे हाथों में हाथ डाल तू ...
शायद खुशबू मेरी हथेली की, तेरी हथेली को मुस्कुराने वजह दे दे..
वक्त जब फुर्सत का आपको मिले,
हम बैठे हैं इंतज़ार में याद कीजियेगा..

Friday, May 27, 2011

कुछ तो बात है मेरे दोस्तों में , जो वो सूरज से चमकते हैं ,
वरना ये क्यूँ होता उनकी नज़र पडी और हम चमक उठे ..

Tuesday, May 24, 2011

शीशे ज़रा सी चोट में टूट जाते हैं, चटक जाते हैं.....
हालात की आग में सिर्फ खामोश दबे पत्थरों ने सोना उगला है ...

Monday, May 23, 2011

" ये शौक ही है याकि तेरे बिछुड़ने की सौगात, 
आज कल महफ़िलों में मुझे बुलाने लगे हैं लोग, 
मेरी गज़ल गुनगुनाने लगे हैं लोग, 
अब तुम्ह्रारे नाम से मुझे सताने लगे हैं लोग, 
पहचानने लगे हैं लोग... 
दिल शीशा, टूटा तो खनका.. 
बिखरा तो लोग मुझसे सम्हलकर चलने लगे...
चलो इसी बहाने सबने देखा तो सही मेरी ओर......"

Monday, May 16, 2011

नींद से आदमी के पुरातन रिश्‍ते में
किस वजह से पड़ती जा रही है दरार
आदमी-आदमी के बीच
अब क्‍यों नहीं रहा वह ऐतबार
जब कोई सफर करते हम
बगलगीर से बेतक्‍कलुफी से बता कर
आराम से सो जाते थे
'
भाईसाहब  ........ इलाहाबाद जंक्‍शन आने पर 
जरा जगा दीजिएगा हमको'


Tuesday, May 10, 2011

धरतीपुत्र...!!!



‎" ये एक विडम्बना ही है कि जो बोरी खरीद सकता है वो उठा नहीं सकता और जो उठा सकता है वो खरीद नहीं सकता" 
मैं मेरे गांव से लिपटा,
हर बार बूढ़े बरगद के आँचल में आज भी रो लेता हूँ,
खेल लेता हूँ,
उसके कन्धों ने कभी भी मुझे अंकों में नहीं आँका है !

मैं आज भी किसान होने का गर्व लिए चलता हूँ,
सुबह से शाम तक,
आपके लिए/ अपनी मिट्टी के/ मैदान चीरता हूँ..
तपता हूँ..
पिघलता हूँ
सोना हूँ
हरदम चमकता हूँ......!

दर्द दिल से जुदा कहाँ होता है,
अश्रु मछलियों के कहाँ सूख पाते हैं,
कभी फूल भी जुदा हुए हैं काँटों से,
जुदा खुशबु भी नहीं फूलों से,
पेड़ों के नाम रख लिए हमने ,
छाँव को किस नाम से बांटोगे,
लहरों की तरह बह रही है मय,
मृगमरीचिका को जाम में कैसे बंधोगे,
ज़िंदगी एक शाम की तरह ढल जायेगी
चलो अपनी परछाईयाँ कुछ लंबी कर लें..
आज हम एक दूसरे के लिए कुछ कर लें...
हाथ पकड़ लें,
कुछ दूर साथ चल लें...

© 2011 कापीराईट सेमन्त हरीश