मैं अभी भी
ज़िंदा हूँ
क्योंकि मैं
मरना नहीं चाहती
अब इस पुरानी हवेली के कमरे में अपनी घुटती तमन्नाओं के बीच से ,
सड़ी-गली परंपराओं की सीलन भरी दीवारों के बीच से निकलना चाहती हूँ ,
जहाँ हर चीज़ का चलना, फिरना, उठना, झुकना, गिरना, सम्हलना एक अनसुलझी गिरफ्त में हो,
तकाजों में डूबता हो, हर पल मौन मेरे गीतों का, अरमानों का, सपनों का, चाहत का,
इस हवेली की चौखट से दूर जाना है.... कुछ देर जीना है
इस शहर के बाज़ारों में फूलों का मोल होते मैं देखती रहती हूँ
कैसे बिकते हैं ये रंग बिरंगे गीत
कब कब बिकती हैं दलीलें अलग अलग दामों में,
त्योहारों और श्राद्ध पक्ष के महीनों में कैसे फलों के मोल बदलते हैं
और अब डर कि कहीं
इस गफलत में ये प्रीत में भीगा तिनका न छूट जाये,
किसे मालूम मैं फिर से खामोशी में धँस जाऊँ,
इस से पहले कि मेरे तिनके का भी मोल बदल दिया जाये
मैं अब हर गहरी अमावस्या को दिये जलाऊँगी,
दीपावली वैसे भी राम के वापस लौट आने का अवसर है
शबरी कब पूजी जाती है
वह सिर्फ कहानियों में कही जाती है
और शबरी यूं ही हर बार कहीं अकेली रह जाती है,
कोई नहीं जानना चाहता राम के जाने के बाद उसका क्या हुआ,
लोग सिर्फ कहानी पढते हैं
किताबों के मोल होते हैं
मैं कहानी बन जाना चाहती हूँ
शबरी मरती है ,
कहानी नहीं,
मैं जीना चाहती हूँ....मरना नहीं चाहती .....